घर से निकल और पा ले अपनी मंजिल
ह**ो? फ्रेंड्स? मैं आज 1 नई कविता लेकर आई। जिसका शीर्षक है घर से निकल और पाले। अपनी मंजिल। मंजिल तेरे लिए। कब से खाफ। सजाए। मैंने तय कर लिया था। बरसों? पहले ही। मैंने। 1 दिन आएगा। जब चल दूंगी तुझे ढूंढने। ऐसा तय कर लिया था। मैंने कैसे छोड़? देती? वो जो खाब देखे थे, उन्हें पूरा जो करना था। पढाई करते ही हमें हमारी जिम्मेदारी ससुराल। परिवार की पाती? और फिर बच्ची। परवरिश बच्चों। की। करते।
Muskan Bothra
@Heart_sayer · 0:54
बहुत खूब हैं। सच बात। आप। मुझे। आपने। इतनी खूबी है? आप ही इतने टालंतरहोतो? क्यों? अपने बच्चों को? रिश्तेदारों? को? और दुसरे का उदाहरण 2 खुद का ही दे सकते हो? बहुत लिखी है। आपने? पोय? और शीर्षक। तो सबसे ज्यादा मजा। घर से निकलो? और पालो। अपने। मंजिल। सही बात है। जब तक आप घर से निकलोगे नहीं, अपने उन 4 दीवारों से बाहर जाकर देखोगे? नहीं तो मंजिल की राहें? सुंदर। कब लगेगी?
ROHIT RAJ
@Rohit_raj_0001 · 1:07
इतनी। कॉमन व्यस्त होने के बावजूद? अपनी जिम्मेदारियों में घिरे रहने के बावजूद वो कैसे अपने लक्ष्य के प्रति सचेत हो सकती है? कैसे खुद को आगे बढ़ा सकती है? कैसे अपने मतलब, अपने आप को उस मुकाम पर देख सकती है? जहाँ वो देखना चाहती है? तो बहुत ही अच्छे तरीके से आपने इन सबको व्यक्त किया है। और उम्मीद उम्मीद करूंगा कि आप इसी तरह से अपने अन्य कविताओं को हमारे बीच लाते रहे और इंतजार रहेगा। आपकी कताओं? का धन्यवाद।