आज इन्ही सब सवालों से घिरा हुआ था। तो मुझे लगा कि इस विषय पर भी कुछ लिखना चाहिए। तो मैंने उसी विषय पर कुछ पंक्तियां लिखी हैं? तो प्रस्तुत करता हूँ। मैं। आज। क्या लिखूँ? कैसे लिखूँ? कब तक। लिखूँ? दुविधा? पड़ी है? मेरे मन में। सोच रहा। अपने अकेले पन में। दिल और दिमाग का अंतरद्वंद। जा। पहुंचा। अपनी पराकाष्ठा। पर।
Urmila Verma
@urmi · 1:27
रोहित जी आपकी रचना सुनिए। अभी। मैं। आज क्या लिखूँ? जिसमें आपने बेहद सुंदर ढंग से अपने विचार व्यक्त किए हैं। अपना मन का अंतरद्वंद स्पष्ट किया है। और ये आपकी मन स्थिति नहीं है। ये सभी लेखकों की सभी कवियों की मनस्थिति होती है कि वो लिखना। बहुत कुछ चाहते हैं। कई बार। और 1। उल्चहंसीआजाती है। आपने बहुत सुन्दर ढंग से ये सारा अंतरदवंद व्यक्त किया है। सचमुच जब हमारे दिल और दिमाग का यह अंतर दंत चरम सीमा पर पहुंचता है।
हेलो जी? आपने बिल्कुल सही कहा है? कि कभी कभी ऐसा होता है कि हमें लिखने को बिल्कुल दिल नहीं करता? जी नहीं चाहता? बस सोचते रहते कि आज लिखना चाहिए या नहीं? और ऐसा होता है कि हम क्या लिखें? हम कैसे लिखे? हम पेन पकड़ते तो सच है लेकिन वो वर्ड्स वो ख्याल। वह आता नहीं है दिल में। और जब हम लिखना स्टार्ट करते हैं। जब ऐसा होता है कि कुछ ऐसा लिखे जो लोगों को हर्ट न हो सुनकर और वो खुशी खुशी सुने और उनका दिल खुश हो जाए, वैसे लिखना चाहते हैं हम सब।