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वो भी क्या दिन थे

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वो भी क्या दिन थे जब सूरज खिला करता था और रातें जगमगाया करती थी अब तो सिर्फ दिन निकलता है और रातें बीतती है क्यों चांदनी मुलायम नहीं लगती क्यों पहली किरण पलकों से नहीं खेलती बारिश तो बरसती है क्यों आज तीर सी छुपती है सर्दी की वो धूप जो सुनहरी चादर सी थी क्यों आज चिलचिलाती है आज हंसी क्यों बेरुखी सी है और आंसू कुछ ज्यादा ही नमकीन पहले खामोशी में भी मौसिकी थी आज सिर्फ शोर में ही विलीन वो सुकून के पल जब बादलों में हम शकले ढूंढा करते थे वो पानी के झरने जिन पर हम परिंदे गिना करता करते थे आज इल्म ही नहीं होता कब शाम आती और रुकसत हो जाती है आँखों में ख्वाइश लिए बस जिंदगी यूं ही बीत जाती है

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