सूरज की लौ में जलना सीखा था। न जाने कब चांद से दोस्ती हो गई। उड़ना तो आसमान में चाहा था। न जाने कब आंखें ही सतरंगी हो गयी। बंजर जमी की सड़क कब जंगल का रुख कर गई। पतझर में भी जैसे सावन दिखा गई। जिस बारिश से कतराती थी, आज उसी में अपनी हथेलियां भिगोती हूँ। सौंधी मिट्टी की खुशबू से अपना मन टटोलती हूँ रंगत ढूंढ रही थी। इन बेजान चीजों में मुट्ठी खोली तो पाया, रंगत तो मेरे हाथों में ही थी।
Premsukh
@Premsukh55 · 0:52
हेलो मेम आपने काफी अच्छे तरीके से यह बयान किया कि सब कुछ हमारे अंदर ही होता है, हमारे विदिन होता है, हमारी हैप्पीनेस, हमारे ही अंदर डिसाइड करती है, फिर भी हम उसको बाहर ढूंढते हैं। ये कहने का जो आपने वे तरीका निकाला, इट बिओंड एनी लिमिटेस। और ये काफी ज्यादा मोटिवेटिंग था। थैंक यू सो मच और मुझे भी यही लगता है सेम ऑल थोड्सारएग्रिड। और यह भी मैं कहना चाहूंगा कि खुशी जो है वो ढूंढे नहीं मिलती या फिर कोशिश करने से नहीं मिलती। वो शांत बैठ कर अपने आप को देखने से मिलती है।
थैंक यू सो मच for you apprीcिएशioन जी, आप जो बोल रहे हैं वो भी बहुत सही है कि खुशी हमारे अंदर ही होती है और हम बाहर उसे ढूंढते रहते है। its gred टो her from यू आई होप में मेरे जो नेक्ट वेल्स जो भी मैं पोस्ट करूंगी, आप उन्हें भी सुनेंगे और अपना रिएक्शन देंगे थैंक यू वेरी मच।