नमस्कार। मैं उर्मिला। वर्मा। 1। नई रचना लेकर। प्रस्तुत। हूँ। कविता का शीर्षक है आंसु सुनिएगा। आंसू। कहे जाते हैं? मन की पीड़ा? जब बहते? वे अविरल। आंसू। कह जाते हैं? मन की पीड़ा? जब बहते हैं। वे। अविरल। कितना ही छिपाए? इनको? ये बह। निकलते आंखों से। तरल। कितना ही छिपाए? इनको? ये बह। निकलते आंखों से। तरल। पीड़ा। जब घनीभूत होकर संचित हो जाती?
The mystic
@The.mystic01 · 0:42
नमस्कार। मिला जी बहुत ही सुंदर रचना है आपकी। और बहुत ही अच्छा रचना। पाठ आपने किया। और मैं समझता हूँ कि हमारे अंतरमन के वो शब्द जो हमारे लब बयां नहीं कर पाते, बरबसी हमारी आंखों से आंसू बनकर बह निकलते हैं। मुझे किसी की लिखी कुछ पंक्तियां याद आ रही है कि यूं तो हर आँख रोती है पर हर बूंद अश्क नहीं होती है। यूं तो हर आंख रोती है पर हर बूंद अश्क नहीं होती है। और देखकर रो दे जो जमाने का गम उस आँख से निकली। हर बूंद मोती है। धन्यवाद।